शहर में सर्कस लगा था
एक बच्चा अपनी छोटी बहन के साथ
सर्कस देखने आया था
दरवाज़े पर चौकीदार था
बच्चा और उसकी बहन ठिठके
चौकीदार ने पूछा, संस्थान की आवाज़ में,
तुम्हारा टिकट कहाँ हैं?
टिकट तो नहीं है…
अंदर जाना है तो टिकट तो लेना पड़ेगा
मुझे पता है, पर मेरे पास तो पैसे नहीं हैं
पैसे नहीं हैं तब तो अंदर नहीं जा सकते
बच्चे ने कुछ देर सोचा
फिर बोला, हमें तो जेब खर्च नहीं मिलता
मैंने कमाने की कोशिश भी की थी, पर नहीं कमा पाया
तो अंदर नहीं जा सकते
आज इसका जन्म-दिन है, मैंने वादा किया था
कि इसके जन्म-दिन पर अगर सर्कस लगा होगा
तो मैं इसे दिखाने ले जाऊंगा
पर अंदर जाने के लिए टिकट तो लेना पड़ेगा
देख लो, सब ले रहे हैं, चौकीदार ने कहा
सिपाही की आवाज़ में
मुझे पता है, पर…
सिर्फ़ आज जाने दीजिए
अगली बार मैं पैसे लेकर ही आऊंगा
ऐसे कितने लोगों को छोड़ सकता हूँ मैं
पता चल गया तो मुझे निकाल देंगे
हम बहुत दूर से पैदल आए हैं
चौकीदार कुछ कहने जा रहा था…
अचानक इस घिसी-पिटी कहानी में
एक घिसा-पिटा सा चमत्कार हुआ और…
चलो आज छोड़ देता हूँ, फिर परेशान मत करना
चौकीदार ने बहुत पुराना डायलॉग मारा
पर आवाज़ इन्सान की थी
तो इस दिन, इस जगह, इस बच्चे के साथ
इस चौकीदार के रहते, यह चमत्कार तो हो गया
और थोड़ी देर को संस्थान की जगह
इन्सान ने हथिया ली
पर क्या इस बच्चे के साथ दोबारा ऐसा होगा?
किसी और बच्चे के साथ होगा?
होने और नहीं होने के अनुपात पर
कहीं कोई शोध वगैरह हो रहा है क्या?
संस्थान कब कितना कैसे इन्सान बन सकता है
इस सवाल पर मान्यवर विचारकों के क्या मत और भेद हैं?
भांति-भांति के विज्ञानियों के क्या निष्कर्ष हैं?
हैं भी या नहीं हैं?
होने की कोई योजना है?
संसद में किसी ने ये सवाल उठाया क्या?
अगर हाँ,
तो सवाल और जवाब की आवाज़ें कौन सी वाली थीं?
और इस बात की खबर देने वाली आवाज़ें कौन सी थीं?
आवाज़ें असली थीं या ओढ़ी हुई थीं?
कला के खूबसूरत संसार में
रिटरिक की बू फैलाने के लिए माफ़ी।
…अफ़ेंसिव होने के लिए माफ़ी।
…डिफ़ेंसिव होने के लिए माफ़ी।
क्या करें, बड़ी माफ़ियाँ मांगनी पड़ती हैं बाहर भी
ऐसे सवाल उठाने के लिए
ये तो कला का संसार ठहरा।
पर माफ़ करो न करो: जवाब तो दे दो यार!
मैं बहुत-बहुत-बहुत दूर से आ रहा हूँ।
[2009]
liked it! I read several of the earlier poems, enjoyed them as well.