[ये श्री अनिल एकलव्य जी के एक विद्वतापूर्ण शोधपरक लेख का खड़ी बोली कविता में अनुवाद है। मूल लेख बिजली के खेल में हुए हार्ड डिस्क क्रैश के कारण खो गया है। उसे रिकवर करने की कोशिश चल रही है। तब तक यही सही।]
जंगल-जंगल पता चला है
धोती पहन के मोगैंबो खिला है
पगड़ी पहन के गब्बर सिंह सजा है
…
पिछली बार जो लठैतों-डकैतों ने
तोड़ा-फोड़ी और पिटाई की वो याद ही है तुम्हें
तो ये मसला अब बहुत लंबा खिंच गया है
जज साहिबान, अब इसे लॉक किया जाए
अबकी अगर शामत न आई हो
तो समझ से काम लो और चुप बैठो
हमने रियायत कर दी है तुम्हारे साथ
पर लठैत-डकैत अभी संत नहीं हो लिए हैं
ज़रूरत पड़ी तो जो कहा गया था
वही होगा
तलवारें निकल आएंगी म्यान से
और जो भी करेगा विरोध
वो जाएगा जान से
…
हाँ, ये ठीक है – अबकी कोई शोर नहीं
बड़ा डिग्नीफ़ाइड रिस्पौंस रहा है
लगे रहो, जमे रहो, सीख जाओगे
…
खुश हुआ, मोगैंबो खुश हुआ
गब्बर सिंह को ये शरीफ़ाना नाच
ब-हु-त पसंद आया
ये परिवार के साथ देखने लायक है
परिवार समझते हो ना?
क्या करें
आजकल के बच्चे परिवार संस्कार
सब भूलते जा रहे हैं
उसके बारे में भी कुछ करेंगे
सर्च एंजिन वालों से भी बात चलाई है
पर फिलहाल तो इस फिल्म को
अगले साल ऑस्कर में भेजेंगे
[कविता में किए इस अनुवाद में घटिया फ़िल्मों का ज़िक्र आने का ऐसा है कि अनुवादक बेचारा खुद एक भयंकर घटिया फ़िल्म में एक ऐक्स्ट्रा है। दुआ कीजिए कि इस नई फ़िल्म को ऑस्कर मिल जाए। तब शायद अनुवादक को भी इनाम में माफ़ी मिल सके।]